व्ही.एस.भुल्ले : इसे देश प्रदेश या फिर लोकतंत्र का सौभाग्य कहे या फिर देश के करोड़ों करोड़ बेरोजगार युवाओं का दुर्भाग्य कि कभी सत्ता का अह...

यहीं कारण है कि हम प्राकृतिक, सांस्कृतिक रुप से समृद्ध, शक्तिशाली होने के बावजूद भी अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच तिरस्कृत हो, अक्षम असफल साबित हो जाते है। क्योंकि सत्तायें भी आज जिस तरह से सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग सतत सत्ता में बने रहने के लिये कर प्रदेश या देश जनों की आशा-आकांक्षाओं ही उपेक्षा करती है। उसी परिणाम है कि रोजगार व नैसर्गिक सुविधाओं को लेकर चहुंओर कोहराम मचा है। बजाये सत्तायें सटीक समाधान खोजने या समाधान की दिशा में कार्य करने के बजाये, स्वयं या सत्ता हित साधने में जुटी रहती है। जिससे आज समुचे प्रदेश ही नहीं, देश में निराशा का माहौल है। सिस्टम में जिन्हें जबावदेह होना चाहिए उन पर कोई प्रमाणिक जबावदेही नहीं और जो प्रमाणिक जबावदेह नहीं वह जबाव तलाश सवालों के जबावों में उलझे रहते है।
अगर सत्तायें चाहे और सत्ता प्रमुख होने के नाते सत्ता प्रमुख राजधर्म पालन में स्वयं को सक्षम पाते है तो कोई समस्या किसी भी क्षेत्र में ऐसी नहीं, जो नैसर्गिक सिद्धान्त का पालन करते हुये उसका समाधान न खोज सके। जब भी कोई समस्या प्रबल रुप से सत्ताओं को प्रभावित करने आती है जल्दबाजी में ऐसी तकनीके खोजी जाती है जिनका परिणाम पहले से ही शून्य और दूरगामी नहीं होता और सत्तायें सारे संसाधन महत्वपूर्ण समय गवां कुछ दिन बाद खाली हाथ हो जाती है।
यहीं दुर्भाग्य हमारी सत्ता, लोकतंत्र गांव, गली, गरीब, किसान और आम जन के साथ उस आशा-आकांक्षाओं का है जो हर रोज सुबह होते ही पथराई आंखों से उनका मातम मनाते नहीं थकती और कभी न खत्म होने वाली मायूसी बेबसी में बदल शाम ढलते ही सो जाती है। आखिर वो उम्मीद की किरण सूर्य की पहली रोशनी के साथ इस महान भारतवर्ष को कब नसीब होगी जब बचपन किलकारियों के साथ अठखेलियां और जवानी प्रबल ऊर्जा के साथ पहाड़ खोदने की मंशा रख उत्तरार्द सफल मार्गदर्शन के साथ खुशी-खुशी मुक्ति की ओर अग्रसर होगा और छठां मनोरम सुन्दर होने के साथ मनमोहक हो मगर यह सब हमारी महान सत्ताओं के रहते और राजधर्म के आभाव में फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।
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