चुनाव सिर्फ जीत-हार का मैदान नहीं, राष्ट्र जनसेवा का माध्यम, चुनावी नीतियां सारथी तो हो सकती है मगर जीत की गारन्टी नहीं
जिस तरह से आज कल लोकतंत्र में चुनाव जीतने हारने को लेकर तर्क तथ्य विहीन सवालों की बाढ़ एक दूसरे को निरर्थक, सार्थक बताने आती है ऐसे सवाल न तो किसी समाज, राष्ट्र के लिये सार्थक हो सकते, न ही वह परिणाम जिसके लिये व्यक्ति, दल, संगठन अपनी व्यक्तिगत या वैचारिक प्रतिष्ठायें दांव पर लगा आम जन को भ्रमित करने का प्रयास करते है और अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने में जुट जाते है। किसी भी व्यवस्था या लोकतंत्र में किसी व्यक्ति, संगठन, संस्थाओं की नीतियां अमूमन गलत नहीं होती, वह राष्ट्र व जन हित के लिये बनाई जाती है।
इस बीच अगर कुछ गलत होता है तो क्रियान्वयन कि पद्धति और नीति निर्धारक की मंशा गलत हो सकती है। अगर क्रियान्वयन और मंशा ठीक है तो परिणाम सार्थक और सफल आते है। अगर क्रियान्वयन में कोताही और मंशा के केवल प्रचार-प्रसार तक सीमित हो तो परिणाम निष्प्रभावी निरर्थक आते है। जिसकी अनुभूति एहसास चुनावी हार जीत को तय करता है जिससे एक मजबूत लोकतंत्र का निर्माण होता है।
आज यक्ष सवाल यह है कि जब समुचे देश में चुनाव एक साथ सफलता और सार्थक रुप से हो सकते हो तो कई प्रदेशों में पल्स पोलियों अभियान एक साथ हो सकता है। तो फिर 500-1000 की नोटबंदी, जीएसटी सफलता पूर्वक क्यों नहीं? निश्चित ही दोनों ही निर्णय जन, राष्ट्र हित में हो। मगर आम जन को तकलीफ तो हुई, जो सरकार की न तो नीति थी, न ही मंशा, मगर उसके बावजूद भी लोग परेशान हुये। ऐसे में सरकारों का दायित्व होता है कि वह राष्ट्र, जनहित में निर्णय लेेते वक्त इस बात का ध्यान अवश्य रखे कि जिनके लिये सरकार निर्णय ले रही है, नीतियां बना रही है, कहीं वह उनके संघर्ष पूर्ण जीवन में समस्यायें पैदा न कर दे, जो किसी भी शासन व सत्ता का कर्तव्य भी होता है।
इतना ही नहीं जन, धन, स्वच्छता, स्केल डब्लवमेन्ट, स्टार्टप, ग्रीन इण्डिया, मुद्रा कोष, आवास जैसी कई राष्ट्र जनहित की प्रभावी योजनायें देश में बनी। मगर सफल, सक्षम क्रियान्वयन के आभाव में या तो वह सार्थक, सफल परिणाम नहीं दे सकी, जिसकी सरकार ही नहीं, देश के प्रधानमंत्री व आम जन को आशा-आकाक्षांयें थी।
विपक्ष के सार्थक, सकारात्मक, सुरक्षात्मक सवाल तर्क और तथ्य के साथ इन नीतियों और परिणामों पर होना चाहिए और सराकर या सत्ताधारी संगठनों को पूरी प्रमाणिक ग भीरता से जबाव देने के साथ सवालों को सुनना भी चाहिए। तभी एक अच्छा-सच्चा मजबूत लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा कर, सार्थक व सफल परिणाम राष्ट्र व जनहित में प्राप्त किये जा सकते है।
क्योंकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में पूर्ण बहुमत वाली सरकार को 5 वर्ष का मौका होता है। इस दौरान सरकारें राष्ट्र, जनहित में सार्थक प्रदर्शन करें या निरर्थक जिसका परिणाम उसे 5 वर्ष बाद होने वाले चुनावों में प्राप्त होते है। अब इसे हम अपना सौभाग्य कहे या र्दुभाग्य कि एक प्रभावशाली सरकार और निर्णायक प्रधानमंत्री के कुशल नेतृत्व के साथ ही, 65 फीसदी युवा शक्ति और उत्साही माहौल में भी वह परिणाम राष्ट्र व जन को नहीं मिल पा रहे, जो कि देश में और वर्तमान हालातों में संभव है। एक ऐसे नेतृत्व के रहते हम वह मुकाम हासिल नहीं कर पा रहे जिसने समुचा जीवन राष्ट्र जन को समर्पित कर आज भी विश्राम पर विराम लगा रखा है।
बेहतर हो हम झूठी हार जीत से इतर अपने राष्ट्र, मानवता के साथ कुछ ऐसा करें, जिससे हमारा महान राष्ट्र शसक्त समृद्ध खुशहाली बन सके। क्योंकि तर्क, तथ्य, लक्ष्य विहीन सवालों से सत्तायें तो जीती जा सकती है, मगर देश की महान जनता का दिल नहीं।
जय स्वराज
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